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पंथ- शरीर ही इनका मंदिर, गुदवाते राम नाम:रामचरित मानस के सामने करते शादी; राम नाम जले नहीं इसलिए दफनाते शव

 

छत्तीसगढ़ में एक संप्रदाय है रामनामी। इस संप्रदाय के लोगों की राम में अटूट आस्था है। इसके बावजूद ये मंदिर में पूजा नहीं करते। पीले कपड़े नहीं पहनते। सिर पर टीका नहीं लगाते और मूर्ति पूजा में भी यकीन नहीं रखते।

 

रामनामी संप्रदाय के लोगों से मिलने मैं छत्तीसगढ़ पहुंचती हूं। राजधानी रायपुर से अंदाजन 200 किलोमीटर दूर जांजगीर चांपा और सारंगढ़ जिले की ओर मेरी टैक्सी रफ्तार से दौड़ रही है। मुझे सारंगगढ़ के गांव मंधईभांठा जाना है, जिसके लिए मुख्य मार्ग से बाएं हाथ को एक रास्ता कटता है।

 

पूरे देश में इस समय करीब 1.5 लाख रामनामी हैं। छत्तीसगढ़ में इनकी आबादी सबसे ज्यादा है।

कच्चे रास्ते पर धूल उड़ाती हमारी गाड़ी कंटीली झाड़ियों के जंगल से होते हुए मनहर के घर की ओर बढ़ रही है। मुझे दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ रहा। करीब दो किलोमीटर चलने के बाद मुझे एक घर दिखता है। सूखी घास के मैदान में ईंट-गारे से बिना लिपाई-पुताई के बना इकलौता घर। 50 साल के मनहर घर के बाहर खड़े हैं। मैं नमस्ते बोलती हूं तो वे हाथ जोड़कर जोर से राम-राम बोलते हैं। उनकी पत्नी मुझसे गले मिलती हैं। वह भी बुलंद आवाज में राम-राम बोलती हैं।

 

मनहर और उनकी पत्नी ने शरीर पर राम-राम गुदवाया है।

मनहर ने सामान्य कपड़ों के ऊपर कंधों तक सफेद रंग का एक कपड़ा पहना है। जिस पर राम-राम लिखा है। उसके ऊपर से एक चादर ओढ़ी है, उस पर भी राम-राम लिखा है। सिर पर मोर पंख से बनी रामनामी टोपी है।

मुझसे बात करते हुए मनहर को जरा-सा भी वक्त मिलता है तो वे राम-राम भजने लगते हैं। बीच-बीच में राम-राम बोलते हुए नाचने भी लगते हैं।

मैं उनसे पूछती हूं कि आपके और मेरे राम में क्या फर्क है?

मनहर बताते हैं, ‘हमारा राम सिर्फ दशरथ पुत्र राम नहीं है। हमारा राम तो घट-घट में रहता है। वह मुझमें भी है और आपमें भी। उसका कोई रूप नहीं है। हमारे घर किसी भगवान की मूर्ति नहीं है और न ही हम मंदिर जाते हैं।

हम सिर्फ राम का भजन करते हैं। समय मिलने पर हम ग्रुप में भी राम भजन करते हैं। इसके लिए समुदाय के लोगों को पहले ही सूचना दे दी जाती है कि फलां जगह पर आज रात भजन होगा। लोग अपने काम निपटाकर वहां इकट्ठा हो जाते हैं।’

 

रामचरित मानस पढ़ते हुए रामनामी इसी तरह भजन-कीर्तन करते हैं।

अब शाम ढलने को है। मनहर मुझे बताते हैं कि आज शाम पास के गांव में भजन का कार्यक्रम है। मैंने भी उनके साथ वहां जाने की इच्छा जाहिर की। कुछ देर बाद मैं मनहर के साथ उस गांव में पहुंचती हूं। दो कमरे का घर। चौखट मिट्टी से लिपी है। कमरों में खेत से आया अनाज बिखरा है। आंगन में लोग धीरे-धीरे इकट्ठे हो रहे हैं। इन लोगों के शॉल पर लिखे राम के रंग, रूप, आकार अलग-अलग हैं। किसी के शॉल पर छोटा तो किसी शॉल पर मोटा। जितने लोग उतने राम के रंग।

आते-जाते लोग एक दूसरे से राम-राम बोल रहे हैं। मैं नमस्ते बोलती हूं, तो कुछ लोग मुझे टोक देते हैं। कहते हैं- ‘भगतन राम-राम कहिए।’ ये लोग महिलाओं को भगतन कहते हैं।

अब दो रामचरित मानस लाई जाती हैं। कुछ लोग उसे पढ़ना शुरू करते हैं। सभी के हाथ में घुंघरू हैं। वे घुंघरू बजाते हुए राम नाम का भजन कर रहे हैं। बीच-बीच में कुछ लोग नृत्य भी कर रहे हैं। 17 साल की जिया इस घर की बेटी हैं। मुझसे कहती हैं कि आप खाना खा लो, भजन तो पूरी रात चलेगी। थोड़ी देर बाद मुझे खाने के लिए बैठाया गया। मिट्टी के चूल्हे पर बना खाना। पीतल की थाली में मूंग की दाल, लाल साग की सब्जी, चावल और अचार परोसा गया। इसके बाद काली चाय पीने को मिली।

मैंने पूछा आप लोग काली चाय ही पीते हैं क्या?

जवाब मिलता है- हमें घंटों बैठकर राम-राम भजना होता है। इसलिए हम काली चाय ही पीते हैं। कुछ महिलाओं ने बिंदी की जगह पर राम नाम गुदवा रखा है। इन्हीं में से एक 70 साल की शिरोमणि हैं। कहती हैं, ‘राम-राम ही सुहाग हैं। मुझे बिंदी की जरूरत ही नहीं है।’

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